Thursday 10 December 2015

सुख-दुःख बनाम कर्म


"सुख-दुःख" बनाम "कर्म"
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एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा की प्रभु मैंने मृत्यु लोक (धरती) पर देखा है कि जो व्यक्ति पहले से ही अपने प्रारब्ध से दुःखी है आप उसे और ज्यादा दुःख प्रदान करते हैं और जो सुख में है आप उसे दुःख नहीं देते है।
भगवान ने इस बात को समझाने के लिए माता पार्वती को धरती पर चलने के लिए कहा और दोनों ने मनुष्य रूप में पति-पत्नी का रूप रखा और और एक गावं के पास डेरा जमाया । शाम के समय भगवान ने माता पार्वती से कहा की हम मनुष्य रूप में यहाँ आये है इसलिए यहाँ के नियमों का पालन करते हुए हमें यहाँ भोजन करना होगा। अतः मैं भोजन की सामग्री की व्यवस्था करता हूँ तब तक तुम रसोई बनाओ।
भगवान के जाते ही माता पार्वती रसोई में चूल्हे को बनाने के लिए बाहर से ईंटें लेने गईं और गाँव में कुछ जर्जर हो चुके मकानों से ईंटें लाकर चूल्हा तैयार कर दिया। चूल्हा तैयार होते ही भगवान वहां पर बिना कुछ लाये ही प्रकट हो गए। माता पार्वती ने उनसे कहा आप तो कुछ लेकर नहीं आये, भोजन कैसे बनेगा ? भगवान बोले - पार्वती अब तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
भगवान ने माता पार्वती से पूछा की तुम चूल्हा बनाने के लिए इन ईटों को कहा से लेकर आई ? तो माता पार्वती ने कहा - प्रभु इस गावं में बहुत से ऐसे घर भी हैं जिनका रख रखाव सही ढंग से नहीं हो रहा है। उनकी जर्जर हो चुकी दीवारों से मैं ईंटें निकाल कर ले आई। भगवान ने फिर कहा - जो घर पहले से ख़राब थे तुमने उन्हें और खराब कर दिया तुम ईंटें उन सही घरों की दीवाल से भी तो ला सकती थीं।
माता पार्वती बोली -- प्रभु उन घरों में रहने वाले लोगों ने उनका रख रखाव बहुत सही तरीके से किया है और वो घर सुन्दर भी लग रहे हैं । ऐसे में उनकी सुन्दरता को बिगाड़ना उचित नहीं होता।
भगवान बोले - पार्वती यही तुम्हारे द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर है। जिन लोगो ने अपने घर का रख रखाव अच्छी तरह से किया है यानि सही कर्मों से अपने जीवन को सुन्दर बना रखा है उन लोगों को दुःख कैसे हो सकता है।
मनुष्य के जीवन में जो भी सुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा सुखी है, और जो दुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा दुखी है । इसलिए हर एक मनुष्य को अपने जीवन में ऐसे ही कर्म करने चाहिए की, जिससे इतनी मजबूत व खूबसूरत इमारत खड़ी हो कि कभी भी कोई भी उसकी एक ईंट भी निकालने न पाए।
प्रिय बंधुओ व मित्रो, यह काम जरा भी मुश्किल नहीं है। केवल सकरात्मक सोच एवम् निः स्वार्थ भावना की आवश्यकता है । इसलिए जीवन में हमेशा सही मार्ग का ही चयन करें और उसी पर चलें

Tuesday 8 December 2015

आपकी कीमत

एक आदमी ने भगवान बुद्ध  से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है?

बुद्ध  ने उसे एक Stone दिया
और कहा : जा और इस stone का
मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान
रखना stone को बेचना नही है I

वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है?

संतरे वाला चमकीले stone को देख
कर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे
मुझे दे जा"

आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा
"एक बोरी आलू ले जा और
इस stone को मेरे पास छोड़ जा"

आगे एक सोना बेचने वाले के
पास गया उसे stone दिखाया सुनार
उस चमकीले stone को देखकर बोला,  "50 लाख मे बेच दे" l

उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..

उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू
ने इसे बेचने से मना किया है l

आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया l

जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेशकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका l

फिर जौहरी बोला , "कहा से लाया है ये बेशकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती
ये तो बेशकीमती है l"

वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध  के पास आया l

अपनी आप बिती बताई और बोला
"अब बताओ भगवान ,
मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?

बुद्ध  बोले :

संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई l

सब्जी वाले के पास गया उसने
इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई l

आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई l
और
जौहरी ने इसे "बेशकीमती " बताया l

अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है l

तू बेशक हीरा है..!!
लेकिन,
सामने वाला तेरी कीमत,
अपनी जानकारी -  अपनी हैसियत से लगाएगा।

घबराओ मत दुनिया में..
तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।

Respect Yourself,
You are very Unique..

Thursday 5 February 2015

धन का बंटवारा

एक समय की बात है जब धर्मपुरी नगर के राजा सोमसेन शिकार खेलने के बाद अपने नगर को लोट रहे थे की जंगल के बिच में राजा अपने सेनिको से बिछड़ गए और जंगल में अकेले ही अपने नगर की तरफ चल पड़े। रास्ते में चलते समय उन्होंने एक आदमी को मुरली बजाते हुए अपने नगर की तरफ जाते हुए देखा तो राजा ने कुछ दूर के लिए उसका साथ ले लिया और दोनों साथ साथ चलने लगे बातो ही बातो में राजा ने उस व्यक्ति को पूछा की वो कोन है और क्या काम करता है और केसे गुजारा चलता है।
       उस आदमी ने कहा की में एक लकडहारा हूँ और लकड़ी काटने का काम करता हु और रोजाना चार रुपये कमाता हूँ और पहला रुपया तो कुए में फेंक देता हूँ दुसरे रुपये से कर्जा चुकता हूँ तीसरे रुपये को में उधार देता हूँ और चौथे रुपये को में जमीन में गाड़ देता हूँ। वो अपनी कहानी कह रहा था और राजा उसको इस बारे में पूछना ही  चाहता था मगर तभी सैनिक राजा को ढूंढते-ढूंढते वह आ गये और फिर राजा उनके साथ चला गया। राजा ने दुसरे दिन अपने दरबार में सभी लोगो को उस लकडहारे की बात कही और पूछा की वो लकडहारा जो चार रुपये खर्च करता है उसको केसे और कहा खर्च करता है जरा खुलासा पूर्वक बताओ लेकिन इस बात का जवाब कोई भी नहीं दे सका। तो राजा ने सिपाही को आदेश दिया की जाओ और उस लकडहारे को दरबार में मेरे सामने उपस्थित करो। सिपाही ने लाकर के राजा के सामने लकडहारे को पेश कर दिया राजा ने उसको कल के उसके जवाब का खुलासा करने को कहा तो उस लकडहारे ने कहा की पहला रूपया में कुए में फेकता हूँ का मतलब ये है की में पहले रुपये से अपने परिवार का पालन करता हूँ। दुसरे रुपये से में कर्जा चुकता हूँ यानी की मेरे माता पिता बूढ़े है जिनके इलाज और खर्चे को पूरा करता हूँ और उनका जो उपकार है वो कर्जा मेरे ऊपर है उसको चुकता हूँ, तीसरे रूपये को में उधार देता हूँ का मतलब ये है की एक रुपये को में अपने बचो की शिक्षा आदि पर खर्चा करता हूँ ताकि जब में बूढ़ा हो जाऊ तो वो उधार दिया हुवा मेरे को काम आ सके। और चौथे रुपये को मै जमीन में गाड़ देता हूँ इसका मतलब ये हुवा की चौथा रूपया में धर्म ध्यान दान दक्षिणा और लोगो की सेवा में खर्चा करता हु ये तब मेरे काम आएगा जब में इस दुनिया से विदा होऊंगा। राजा और सभी दरबारियों ने लकडहारे की बाते सुनी और सराहना की राजा ने उस लकडहारे को समान दिया और काफी धन देकर के इज्जत से वापस विदा किया।
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Monday 29 April 2013

कौवे और इन्सान का मांस


एक दिन एक कव्वे के बच्चे ने कहा की हमने लगभग हर चौपाय जीव का मांस खाया है. मगर आजतक दो पैर पर चलने वाले जीव का मांस नहीं खाया है. पापा कैसा होता है इंसानों का मांस?

पापा कव्वे ने कहा मैंने जीवन में तीन बार खाया है, बहुत स्वादिष्ट होता है.

कव्वे के बच्चे ने कहा मुझे भी खाना है... कव्वे ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा चलो खिला देता हूँ.

बस मैं जैसा कह रहा हूँ वैसे ही करना... मैंने ये तरीका अपने पुरखों से सीखा है.

कव्वे ने अपने बेटे को एक जगह रुकने को कहा और थोड़ी देर बाद मांस का दो टुकड़ा उठा लाया. कव्वे के बच्चे ने खाया तो कहा की ये तो सूअर के मांस जैसा लग रहा है.

पापा ने कहा अरे ये खाने के लिए नहीं है, इस से ढेर सारा मांस बनाया जा सकता है. जैसे दही जमाने के लिए थोड़ा सा दही दूध में डाल कर छोड़ दिया जाता है वैसे ही इसे छोड़ कर आना है. बस देखना कल तक कितना स्वादिष्ट मांस मिलेगा, वो भी मनुष्य का.

बच्चे को बात समझ में नहीं आई मगर वो पापा का जादू देखने के लिए उत्सुक था.

पापा ने उन दो मांस के टुकड़ों में से एक टुकड़ा एक मंदिर में और दूसरा पास की एक मस्जिद में टपका दिया.

तबतक शाम हो चली थी, पापा ने कहा अब कल सुबह तक हम सभी को ढेर सारा दुपाया जानवरों का मांस मिलने वाला है.

सुबह सवेरे पापा और बच्चे ने देखा तो सचमुच गली गली में मनुष्यों की कटी और जली लाशें बिखरी पड़ीं थी.

हर तफ़र सन्नाटा था. पुलिस सड़कों पर घूम रही थी. जमालपुर में कर्फ्यू लगा हुआ था.

आज बच्चे ने पापा कव्वे से दुपाया जानवर का शिकार करना सीख लिया था.

बच्चे कव्वे ने पूछा अगर दुपाया मनुष्य हमारी चालाकी समझ गया तो ये तरीका बेकार हो जायेगा.

पापा कव्वे ने कहा सदियाँ गुज़र गईं मगर आजतक दुपाया जानवर हमारे इस जाल में फंसता ही आया है.

सूअर या बैल के मांस का एक टुकड़ा, हजारों दुपाया जानवरों को पागल कर देता है, वो एक दूसरे को मारने लग जाते हैं और हम आराम से उन्हें खाते हैं.

मुझे नहीं लगता कभी उसे इंतनी अक़ल आने वाली है.

कव्वे के बेटे ने कहा क्या कभी किसी ने इन्हे समझाने की कोशिश नहीं की

कव्वे ने कहा एक बार एक बागी कव्वे ने इन्हे समझाने की कोशिश की थी मनुष्यों ने उसे सेकुलेर

कह के मार दिया...........

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Tuesday 16 April 2013

संगत


हकीम लुकमान ने एक दिन अपने बेटे को पास बुला कर धूपदान की ओर इशारा किया.इशारे को समझ बेटा धूपदान में से एक मुट्ठी चंदन का चूरा ले आया. फिर लुकमान ने दूसरा इशारा किया. इशारा समझ बेटा दूसरे हाथ में चूल्हे में से कोयला ले आया.

लुकमान ने फिर इशारा किया कि दोनों को फेंक दो. बेटे ने दोनो को फेंक दिया. लुकमान ने बेटे से जानना चाहा कि अब उसके हाथों में क्या है? बेटे ने बताया कि दोनों हाथ खाली हैं. लुकमान ने कहा, ऐसा नहीं है. अपने हाथों को गौर से देखो. बेटे ने अनुभव किया कि जिस हाथ में चंदन का चूरा था, वह अब भी खुशबू बिखेर रहा है और जिस हाथ में कोयला रखा था, उसमें अब भी कालिख नजर आ रही थी. लुकमान ने कहा, बेटा, चंदन का चूरा अब भी तुम्हारे हाथ में खुशबू दे रहा है, जबकि तुम्हारे हाथ में अब चंदन नहीं है. कोयले का टुकड़ा तुमने हाथ में लिया तो तुम्हारा हाथ काला हो गया और उसे फेंक देने के बाद भी हाथ काला है.

इसी तरह दुनिया में कुछ लोग चंदन की तरह होते हैं, जिनके साथ जब तक रहो तब तक हमारा जीवन महकता रहता है और उनका साथ छूट जाने पर भी वह महक हमारे जीवन से जुड़ी रहती है. दूसरे ऐसे होते हैं जिनके साथ रहने से भी और साथ छूटने पर भी जीवन कोयले की तरह कलुषित होता है.

यदि आप दक्ष और प्रतिष्ठित लोगों से जुड़े हैं, तो आपको यह बताने में गर्व महसूस होता होगा कि मैं फलां व्यक्ति के साथ काम कर रहा हूं. सामनेवाले पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ता है. दूसरी ओर कम प्रतिष्ठित लोगों के साथ काम करने पर आपकी छवि भी वैसी ही बन जाती है, भले ही आप बहुत प्रतिभाशाली हों.

कोशिश यही करें कि अपने फील्ड के प्रतिष्ठित लोगों के साथ ही काम करें, ताकि न केवल ज्यादासे ज्यादा सीख सकें, बल्कि आपकी अच्छी ब्रांडिंग भी हो ।

Wednesday 10 April 2013

इश्वर कहाँ है


कहाँ हैं भगवान ?

एक आदमी हमेशा की तरह अपने नाई की दूकान पर बाल कटवाने गया.

बाल कटाते वक़्त अक्सर देश-दुनिया की बातें हुआ करती थीं…. आज भी वे सिनेमा, राजनीति और खेल जगत, इत्यादि के बारे में बात कर रहे थे कि अचानक भगवान् के अस्तित्व को लेकर बात होने लगी.

नाई ने कहा, “ देखिये भैया, आपकी तरह मैं भगवान् के अस्तित्व में यकीन नहीं रखता.”

“तुम ऐसा क्यों कहते हो?” आदमी ने पूछा.

“अरे, ये समझना बहुत आसान है, बस गली में जाइए और आप समझ लेगे कि भगवान् नहीं है. आप ही बताइए कि अगर भगवान् होते तो क्या इतने लोग बीमार होते? इतने बच्चे अनाथ होते ? अगर भगवान् होते

तो किसी को कोई दर्द कोई तकलीफ नहीं होती”, नाई ने बोलना जारी रखा, “मैं ऐसे भगवान के बारे में नहीं सोच सकता जो इन सब चीजों को होने दे. आप ही बताइए कहाँ है भगवान?”

आदमी एक क्षण के लिए रुका, कुछ सोचा, पर बहस बढे ना इसलिए चुप ही रहा. नाई ने अपना काम ख़त्म किया और आदमी कुछ सोचते हुए दुकान से बाहर निकला और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया. . कुछ देर इंतज़ार करने के बाद उसे एक लम्बी दाढ़ी–मूछ वाला अधेड़ व्यक्ति उस तरफ आता दिखाई पड़ा, उसे देखकर लगता था मानो वो कितने दिनों से नहाया-धोया ना हो.

आदमी तुरंत नाई कि दुकान में वापस घुस गया और बोला, “ जानते हो इस दुनिया में नाई नहीं होते!”

“भला कैसे नहीं होते हैं?, नाई ने सवाल किया, “

मैं साक्षात तुम्हारे सामने हूँ!! ”

“नहीं ” आदमी ने कहा, “वो नहीं होते हैं, वरना किसी की भी लम्बी दाढ़ी–मूछ

नहीं होती पर वो देखो सामने उस आदमी की कितनी लम्बी दाढ़ी-मूछ है !!”

“अरे नहीं भाई साहब नाई होते हैं लेकिन बहुत से लोग हमारे पास नहीं आते.” नाई बोला

“बिलकुल सही ” आदमी ने नाई को रोकते हुए कहा,”यही तो बात है, भगवान भी होते हैं पर लोग उनके पास नहीं जाते और ना ही उन्हें खोजने का प्रयास करते हैं, इसीलिए दुनिया में इतना दुःख-दर्द है.”

पिप्लाद


महर्षि दधिचि के पुत्र का नाम था पिप्लाद। चूंकि वह सिर्फ पीपल का फल ही खाया करते थे , इसलिए उन्हें पिप्लाद के नाम से पुकारा जाता था। दरअसल , अपने पिता की तरह पिप्लाद भी बहुत तेजवान और तपस्वी था। जब पिप्लाद को यह पता चला कि देवताओं को अस्थि-दान देने के कारण उनके पिता की मृत्यु हो गई , तो उन्हें बहुत दुख हुआ। आगबबूला होकर उन्होंने देवताओं से बदला लेने का निश्चय किया। यही सोचकर वह शंकर भगवान को खुश करने के लिए उनकी तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से अंतत: शंकर भगवान खुश हुए और पिप्लाद से वरदान मांगने को कहा। पिप्लाद ने भगवान से प्रार्थना की , ' हे आशुतोष! मुझे ऐसी शक्ति दो , जिससे मैं देवताओं से अपने पिता की मृत्यु का बदला ले सकूं। ' भगवान शंकर तथास्तु कहकर अंर्तध्यान हो गए।

उनके अंर्तध्यान होने के तुरंत बाद वहां एक काली कलूटी लाल-लाल आंखों वाली राक्षसी प्रकट हुई। उसने पिप्लाद से पूछा , ' स्वामी आज्ञा दीजिए , मुझे क्या करना है। ' पिप्लाद ने गुस्से में कहा , ' सभी देवताओं को मार डालो। ' आदेश मिलते ही राक्षसी पिप्लाद की तरफ झपट पड़ी। पिप्लाद अचंभित हो चीख पड़ा , ' यह क्या कर रही हो ?' इस पर राक्षसी ने कहा , ' स्वामी अभी-अभी आपने ही तो मुझे आदेश दिया है कि सभी देवताओं को मार डालो। मुझे तो सृष्टि के हर कण में किसी-न-किसी का वास नजर आता है। सच तो यह है कि आपके शरीर के हर अंग में भी कई देवता दिख रहे हैं मुझे। और इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न शुरुआत आपसे ही करूं। '

पिप्लाद भयभीत हो उठे! उन्होंने फिर से शंकर भगवान की तपस्या की। भगवान फिर प्रकट हुए। पिप्लाद के भय को समझकर उन्होंने पिप्लाद को समझाया , ' वत्स। गुस्से में आकर लिया गया हर निर्णय भविष्य में गलत ही साबित होता है। पिता की मृत्यु का बदला लेने की धुन में तुम यह भी भूल गए कि दुनिया के कण-कण में भगवान का वास है। तुम उस दानी के पुत्र हो , जिसके आगे देवता भी भीख मांगने को मजबूर हो गए थे। इतने बड़े दानी के पुत्र होकर भी तुम भिक्षुकों पर क्रोध करते हो ?' यह सुनते ही पिप्लाद का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने भगवान से क्षमा मांगी। इस तरह एक बार फिर देवत्व की रक्षा हुई।